आज “फ़ूल डे” है। पहले ये दिन बहुत खास हुआ करता था। मैं नए-नए तरीकों से अपने परिचितों को “फ़ूल” बनाया करती थी,, पिछले ही साल अपने एक मित्र को ऐसा ‘बनाया’ था मैने कि उसकी जान पे बन आई थी और हमारी दोस्ती टूटने की नौबत थी॥ उम्र बढ्ने के साथ- साथ ऐसी हरकतें बचपना कहलाती हैं ,और हम गंभीरता का कृत्रिम आवरण ओढ लेते है। और आज इस दिवस का महत्व इसलिए भी कम हो गया है क्योंकि रोज ही लोग एक-दूसरे को “टोपी” पहना रहे है,दग़ा दे रहे हैं और मोबाईल ने तो लोगों के जीवन का आनंद ही छीन लिया है।बडे तो बडे है; मगर बच्चे भी टीवी, ट्यूशन और एक्सट्रा क्लास में व्यस्त है अतः ऐसे हास्य बोध के लिए किसी के पास समय नही है। इसका स्थान धड़ल्ले से सुनाये और पढे जाने वाले द्विअर्थीय संवादों और चुटकियों ने ले लिया है।
आधुनिक ओछी मानसिकता की पराकाष्ठा ये है कि; लोग सच बोलने वाले को ‘हरिश्चंद्र’ और सज्जन को ‘गांधी’ कहते हैं,,गोया कि गाँधी और हरिश्चंद्र कोई गाली हो। अपने आस-पास के उन बुजुर्गों से पूछिए जो देश की स्वतंत्रता के साक्षी है; कि गाँधी होने के क्या मायने है? इसलिए जान लेना चाहिए कि महात्मा गांधी” मजबूरी का नाम” नही…ख़ैर आज से कॉन्वेंट स्कूलों के दरवाज़े पुन: खुल गये(बहुतों के 15 दिन पहले ही खुल गये होंगे) और ऐसा लगता है कि ‘गरमी की छुट्टियाँ ‘ कुछ सालों पश्चात केवल अतीत की बातें बनकर रह जाएंगी। पिज़्ज़ा कल्चर और कॉन्कॉर्ड की गति से भागती दुनिया ने बच्चों से बचपन छीन लिया है। मैं और मेरे हम उम्र बहुत भाग्यशाली है कि हमें हमारा बचपन; मासूम बचपन नसीब हुआ।
15 अप्रैल तक हमारी छुट्टीयां शुरु हो जाती थी,जो लगभग 15 जुलाई तक; यानि कि पूरे 3 महीने चलती थीं । अर्थात उस समय पढाई और स्कूल की कोई भागमभाग नही थी, फ़िर भी सब कुछ भला सा था।छुट्टीयों में नानी के घर जाना और निश्चिंत होकर खेलना,,यही हमारा प्रिय शगल हुआ करता था । दोपहर भर लूडो, ताश, कैरम, पचीसा, कॉमिक बुक्स और शाम को लंगडी,पिट्टूल, परी-पत्थर और रात को छुपा-छुपाई ;;यही थी मेरी दिनचर्या । कितनी ऊर्जा होती थी उस समय हमारे पास और कितना वक्त भी !!आज के बच्चों के पास ये दोनो ही नही है। और इन सबसे भी यदि मुझे फ़ुरसत मिल जाती थी तो आम चुराना,,जेठ की भरी दोपहरी में साइकिल में फ़ॉर्म जाना,तितली पकडना; ये सब मेरे प्रिय काम हुआ करते थे ।
हमारे माता-पिता भी आजकल के “केयरिंग” अभिभावकों की तरह नही होते थे॥ बच्चों को उनकी दुनियां में छोडकर माएं सुकून की सांस लिया करती थी और पिता हमारी गतिविधियों दृष्टि अवश्य रखते थे,,दख़ल नही ।इसका कतई ये अर्थ नही कि उनको हमसे प्यार नही था,, बस वो जीवन ही ऐसा सरल था कि बेवजह टोका-टाकी की ज़रुरत नही रहती थी । अब वो दिन बुलाने पर भी वापस नही आएंगे, बस उनकी मीठी यादें हैं मेरे पास । परिपक्वता हमारा बहुत कुछ छीन लेती है, फ़िर भी हम जल्दी-जल्दी बडे होना चाहते है॥ बचपन में जो तितलियों के झुंड, फूलों की खुश्बू रोमांच देती थी; अब उनके सामने से गुज़र जाने पर भी मन में कोई भाव उत्पन्न नही होते । इतनी संवेदन हीनता इस परिपक्वता की ही देन है।
हर व्यक्ति के अंतस में उसका बचपन छिपा होता है, जो कभी स्वयं के बच्चों या नाती-पोतों के सामने उजागर होता है और इसे जीवित रहना भई चाहिए, क्योकि इसकी मौन उपस्थिति से भी मनुष्य का चित्त प्रसन्न रहता है। और एक बार यदि मनुष्य बचपन को खो दे तो वह बचपना करने लगता है। “बचपन” और “बचपने” में बहुत अंतर होता है और यही अंतर व्यक्ति को ले डूबता है। मुझे दुख है इस पीढी और आनेवाली पीढी के लिये,, जो नही जानते कि उनके पास क्या नही है???