मां के घर बिटिया जन्मे…बिटिया के घर मां…
बुने हुए स्वेटर में, मां ने भेजा है पैगाम,
देहरी आंगन द्वार बुलाते,कब आएगी अपने गांव??
अरसा बीता ब्याह हुए,क्या अब भी आती मेरी याद,
कैसी है तू?? धडक रहा मन,लौटी ना बरसों के बाद।
मोर, कबूतर अब भी छत पर,दाना चुगने आते है,
बरसाती काले बादल,तेरा पता पूछकर जाते है।
रात की रानी की खुश्बू में,तेरी महक समाई है,
हवा चले तो यूं लगता है,जैसे बिटिया आई है।
आज भी ताज़ा लगते है,हल्दी के थापे हाथों के,
एक-एक पल याद मुझे बचपन की बातों के॥
सीवन टूटी जब कपडों की,या उधडी जब तुरपाई,
कभी जला जब हाथ तवे पर,अम्मा तेरी याद आई।
छोटी छोटी लोई से मै,सूरज चांद बनाती थी,
जली-कटी उस रोटी को तू,बडे चाव से खाती थी।
जोधपुरी बंधेज सी रोटी,हाथ पिसा मोटा आटा,
झूमर था भाई- बहन का,कौर कौर हमने बाँटा ।
गोल झील सी गहरी रोटी,उसमे घी का दर्पण था,
अन्न्पूर्णा आधी भूखी, सब कुटुम्ब को अर्पण था।
अब समझी मैं ,भरवां सब्जी,आखिर में क्यो तरल हुई??
जान लिया है मां बनकर ही,औरत इतनी सरल हुई।
ज्ञान हुआ खूंटे की बछिया,क्यो हर शाम रम्भाती थी,
गैया के थन दूध छलकता,जब जंगल से आती थी।
मेरे रोशनदान में भी अब, चिडिया अंडे देती है,
खाना-पीना छोड उन्हे फ़िर,बडे प्यार से सेती है।
गाय नही पर भूरी कुतिया,बच्चे देनेवाली है,
शहर की इन सूनी गलियों में, रौनक छानेवाली है।
मेरे ही अतीत की छाया,इक सुंदर सी बेटी है,
कन्धे तक तो आ पहुची, मुझसे थोडी छोटी है।
यूं भोली है लेकिन थोडी,जिद्दी है मेरे जैसी ,
चाहा मैने न बन पाई,मै खुद भी तेरे जैसी।
अम्मा तेरी मुनिया के भी,पकने लगे रेशमी बाल,
बडे प्यार से तेल रमाकर,तूने की थी सार-संभाल्।
जब से गुडिया मुझे छोड, परदेस गई है पढने को,
उस कुम्हार सी हुई निठ्ठ्ली,नही बचा कुछ गढने को।
तूने तो मां बीस बरस के, बाद मुझे भेजा ससुराल,
नन्ही बच्ची देस पराया,किसे सुनाऊं दिल का हाल्।
तेरी ममता की गर्मी,अब भी हर रात रुलाती है,
बेटी की जब हूक उठे तो,याद तुम्हारी आती है।
जनम दोबारा तेरी कोख से,तुझसा ही जीवन पाऊं
बेटी हो हर बार मेरी फ़िर उसमें खुद को दोहराऊं॥