Sunday 14 October, 2012

आशा ...

रोशनी के द्वार ही सुहाने होते है
चौखट पे इसके, दूरियां कम हो जाती है
अंधकार असमंजस है
लक्ष्य की राह भी इसमें खो जाती है…
क्षण क्षण गलना मोम की तरह
विश्वासघात है जीवन के संग,
अस्तित्व को पहचानो अपने
भर दो उसमें सारे रंग
सपनीले संसार की आयु जल्दी ढलती है
वासत्विकता की कठोर धरा पर
ही ज़िंदगी पलती है…
शमशानी वैराग्य पालने से
बागों में ना तो फूल खिलते है
और ना सांसों की बांसुरी पर
सुख के गीत तैरते है…
आशा के दीप जलाकर मन में
आओ खुशियों की खोज करें
प्रण ले लें कि प्रेम भरा
एक काम तो हम हर रोज़ करें…
क्यूं ना बुलंदियों को छूने का
विश्वास मन में हम पालें
हर डगर पे सफ़ल होने की
आओ आदत हम डालें…

Sunday 16 September, 2012

कुछ अनजान रिश्ते...


आते-जाते खूबसूरत आवारा सडकों पे, कभी-कभी इत्तेफ़ाक से कुछ अनजान रिश्ते बन जाते है…
किशोर कुमार की आवाज़ में ये गाना मेरी इस कहानी में एकदम तो नही मगर फ़िट ज़रुर है।वैसे भी यात्रा में “इत्तेफ़ाक” और “अनजान” दोनो ही लफ़्ज़ बेकोशिश ही शामिल हो जाते है। तो कहानी कुछ ऐसी है कि, मेरे लिये बिलासपुर से कटघोरा तक का रास्ता खूबसूरत तो है पर अनजान बिल्कुल नही। और अब एक साल से चप्पलें घिसते हुए, बस में लटकते हुए, ऊंघते हुए मुझे ‘सीनियर’ यात्री होने का सम्मान भी मिल चुका है, मतलब सारे सह्यात्री,चालक, परिचालक मुझे अब पहचानते है।आज सुबह अखबार मे एक यात्रा संस्मरण पढकर मुझे भी इस मज़ेदार किस्से को बयां करने की प्रेरणा मिली ,जिसे मैं इतने दिनों में भी भूल नही पाई हूं; या यूं कहूं कि किसी ने भूलने ही नही दिया।
       बात आज से लगभग 6 माह पुरानी है। ठंडी के दिनों की ‘शाम’ कब ‘रात’ हो जाती है; पता ही नही चलता। मैं थकी हारी, मन में घर वापस आने की खुशियां समेटे अपनी बस का इंतजार कर रही थी। दिमाग में बहुत सारी उधेडबुन चल रही थी ,, जो किसी भी बुनाई को पूरा नही होने दे रही थी।अपनी मनपसंद बस को देखकर थकावट खत्म हुई सी मालूम पडी;;मैं लपक कर बस में सवार हुई और खिडकी के किनारे वाली अपनी पसंदीदा सीट पर धप्प से जम गई।सामान को दुरुस्त किया और मन ही मन बस सुकून से 3 घंटे की नींद लेने की प्लानिंग की;; उस वक्त मुझे कहां पता था कि ,आज का सफ़र यादगार बनकर मेरी कलम का हिस्सा बनने वाला है, कोई है इस बस में जो मुझे 1 सेकंड सोचने का भी वक्त नही देगा।
    ख़ैर बस ने कटघोरा का बस स्टैंड छोडा और मैने गौर किया कि आज बस कुछ खाली थी, मेरे बगल वाली सीट भी खाली ही थी और मै खुश थी कि नींद वाला प्लान सफ़ल होने जा रहा था। अभी हम बाज़ार से ही गुज़र रहे थे कि मुझसे 2 सीट आगे बगल वाली सीट से एक सज्जन मुंह फ़ुलाए मेरी तरफ़ बढे(ठंड की वजह से और किसी ने शायद खिडकी नही खोल रखी थी,पर मैं बाहरी नज़ारों का लुत्फ़ उठा रही थी), मुझे लगा उनको पान की पीक थूकनी होगी।उन्होनें बिना कुछ कहे इशारे से ही मुझे हटने को कहा मै खतरे को  भांप कर हट गई और उन्होने अपने मुंह का सारा भार सडक पर उडेल दिया। मुझे कोफ़्त सी हुई, उन्होने धन्यवाद दिया और वापस अपनी सीट पर विराजित हो गये। मैं फ़िर से बाहर की रंगीनियों को ताकने में व्यस्त हो गई। अभी कुछ रिलैक्स फ़ील किया ही था कि 2 मिनट बाद फ़िर वही महाशय मुंह फ़ुलाए मेरी तरफ़ बढे; इस बार वो ज़रा जल्दी में थे,, मैं तत्काल उठ खडी हुई और इस बार मेरे दिमाग में ये सवाल आया कि इतनी जल्दी पीक कैसे बन गई?ज़रा गौर से उनकी गतिविधी को देखा तो मालूम पडा कि भाई साहब को उल्टियां हो रही थी( बस यात्रीयों की आम बीमारी)॥ अब अचानक ही मुझे अपनी उस प्यारी सीट से घिनमिनाहट होने लगी,और महाशय अपने काम से फ़ारिग होकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बिल्कुल सफ़ाई देने वाले अंदाज़ में कहा कि- , 4 समोसे खा लिये थे हमने,उसके कारण ही परेशान हैं;; मेरे दिल में किसी ने कहा कि –साले जब पचा नही पाते हो तो खाते क्यो हो मरते दम तक??मगर विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्ट बने रहना मेरे संस्कार मे है तो सज्जनतावश  मैने मुस्कुरा कर उनसे कह दिया कि-आपको यदि बहुत तकलीफ़ हो रही है तो आप यही बैठ जाएं(जब मन करे मुंह खोल कर सडक गंदी कर दें) पर मुझे क्या पता था कि मेरा ये आग्रह मेरे लिए कितना पकाऊ, चिपकू, बोरिंग और तकलीफ़ देह होने वाला है।
    आश्चर्य जनक रुप से उन्होने तुरंत ये आग्रह स्वीकार कर लिया मानो उनको कोई बकरा मिल गया। अत्यंत आभार व्यक्त करते हुए बहुत ही अपनेपन से से मुझे “निर्देश” दिया कि मैं पुरानी सीट पर रखे उनके बैग से उनको शॉल लाकर दूं। कसम से मुझे उस बंदे की बेतकल्लुफ़ी पर बहुत गुस्सा आया,, मगर फ़िर वही संस्कार्…………शॉल ओढकर वो जम गये सीट पर;उम्र रही होगी 35-40 के करीब, भाषा से झांसी की महक, पतले-दुबले निरीह टाईप के। अब शुरु किया उन्होने अपना मिशन “ पडोसी की जान ले लो”………अपना पूरा परिचय उन्होने दिया;;सीआरपीएफ़ में थे, ट्रांसफ़र में जांजगीर जा रहे थे, घर परिवार सबकुछ उन्होने बता डाला एक सांस में। वैसे तो मुझे बातें करना पसंद है पर सफ़र मे किसी से भी नही। पतिदेव की सख्त हिदायत होती है कि ज़रा गंभीरता से रहा करो(मै रह तो नही पाती पर अभिनय जरुर कर लेती हूं),, और वैसे भी मुझे आभास हो रहा था कि मेरी 3 घंटे की नींद वाली योजना में ये महाशय व्यव्धान डाल रहे है,, तो अपना सारा गुस्सा,खीझ और झुंझलाहट मैनें भरपूर अपने चेहरे पर लाकर उनको जताने का प्रयास किया कि; मुझे आपमें कोई दिलचस्पी नही है। मगर वो आदमी निहायत ही ढीठ किस्म का प्राणी था, मुझे रुचि न लेता जानकर उसने सवालों की झडी लगा दी,, मैने पीछा छुडाने के लिये सारे उत्तर दिए फ़िर निहायत ही बेशर्मी से कहा कि प्लीज़ बातें ना करें ,मुझे नींद आ रही है।
   मैने चैन की सांस ली और सोचा कि पकाऊ अध्याय समाप्त और अभी आंख बंद की ही थी कि फ़िर अगला वाक्य – दीदी पानी  है क्या आपके पास??? या तो दे दीजिए या फ़िर हमारे बैग से ला दीजिए,,हमसे उठा नही जा रहा है और बडी प्यास लग रही है।अब तक मैं समझ गई कि ये टेढी खीर है और इनसे बचना आज असंभव है। खिसियाकर उनको पानी तो दे दिया पर मन  में ख्याल आया कि आगे आने वाली नदी में इसको ढकेल दूं और कहूं ,,ले पी ले पानी!! अब मैं धीरे-धीरे खुद को तैयार करने लगी,, पकने के लिए नही बल्कि पकने के बावज़ूद शिष्ट बने रहने के लिये।सोने का विचार तो जा चुका था, अब विचार था कि इसका मुंह कैसे बंद करूं। बस को देखा तो सारी सीटों को “फ़ुल” पाया सिवाय उनकी सीट के जिस पर उनका बैग पडा था।
     मुझे आशचर्य हुआ कि इस सीट पर आते ही उनकी उल्टियां बंद हो गई थी, मैने बदतमीज़ी से उनको ये बात याद भी दिलाई कि आप अब स्वस्थ है; अपनी सीट पर दफ़ा हो जाएं। पर वो तो मानो चिकना घडा थे,,फ़िर उनको चोरी का भय भी दिखाया मगर वो तो मुझे जान से मारने की कसम खाकर बैठे थे,,उल्टे मुझ्से कहा कि मैं उनको उनका बैग लाकर दे दूं। वो इतने अधिकार से मुझे निर्देशित कर रहे थे मानो मैं उनकी पूर्व परिचित हूं।अब मैने उकताकर अपना रामबाण हेडफ़ोन निकाल लिया, ताकि इनसे छुटकारा मिले; पर ये तो असंभव था ना!! हेड्फ़ोन देखते ही उसे दिखाने का आग्रह, फ़िर मोबाईल और टेलीकॉम पर लंबी चर्चा और उसके बाद हिंदी फ़िल्म संगीत पर अच्छा खासा व्याख्यान॥ गीत से कब वो सज्जन राजनीति पर चले गए और कब बiमारी लाचारी, बच्चे- कच्चे से होते हुए घर परिवार के झंझट,पत्नी की बुराई और पारिवारिक संपत्ति को लेकर भाईयों में विवाद तक पहुंच गए;;मुझे समझ ही नही आया। उनकी हर बात मेरे सर के ऊपर से जा रही थी…मैनें बचने का कोई रास्ता ना देखकर उनसे कहा कि- आपको सो जाना चाहिए भईया, आपकी तबियत ठीक नही ना!! अपने प्रति मेरी फ़िक्र देखकर उनकी आत्मीयता और बढ गई शायद ( उनको ये समझ नही आ रहा था कि मेरे भीतर गुस्से के लावे उबल रहे है जो ना जाने कब फ़ट जाए) मेरी तो हर चाल उल्टी हो रही थी।
        हंसते हुए उन्होने बताया कि अंबिकापुर से कट्घोरा तक सो ही रहे थे और मुझसे मिलकर अब फ़्रेश हो गये है… ये सुनके मुझे कैसा लगा होगा,आप खुद ही सोच लीजिए। मेरा मन किया कि उनकी कॉलर पकड के पूछूं – कि तुम्हारी नींद पूरी होने के बाद क्या तुम दूसरों को सोने नही देते??? बातों ही बातों में उन्होने कई बार दुख व्यक्त किया कि;; मुझ स्त्री को नौकरी के चक्कर में कितना कष्ट लेना पड रहा है।फ़िर मुझे आश्वासन दिया कि वो मेरे संघर्ष का अंत कर देंगे, मेरा ट्रांसफ़र करा के।  
  हम बिलासपुर पहुंचने ही वाले थे, मेरे दिमाग ने अब तक काम करना बंद कर दिया था। मैं खुद को और पडोसी को जम के कोस रही थी,तभी उन्होने बिदाई के पहले वाले अंदाज़ मे दुखी होकर मुझसे मेरा सेल नं मांगा, मेरे बंद दिमाग ने काम करना शुरु कर दिया। मैने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए पकने से बचने के लिए एक फ़र्जी नं दे दिया, उन्होने तुरन्त नं मिलाया और कहा कि – दीदी आपका ये नं तो चालू नही। मैने सर पीट लिया और अकल लगाकर इस बार पतिदेव का नं दिया और कहा आज ये नं मेरे पास नही है पर है मेरा ही,, आप जरुर बात करिएगा मुझसे। मुझे पूरी उम्मीद थी कि जरुर कॉल आएगा।
  फ़ाईनली उनका ‘स्टॉप’ आया और दुखी मन से बडी रोनी सूरत लेके वो उतरे, मानो अभी रो देंगे। मैने सुकून की सांस ली और इस बात को लगभग भूल ही गई। घर जाकर पतिदेव को किस्सा सुनाया और कहा कि – किसी मिश्रा जी का कॉल आये तो संभाल लें। और मुझसे तो कतई बात ना कराएं। पतिदेव हंस कर लोट्पोट हुए पर उनको किसी के इतना चिपकू होने का यकीन नही हुआ,,आखरी तक मुझपे ही गरियाते रहे कि तुमने ही लिफ़्ट दी होगी।
  जो भी हो पर एक बात तो 100% सच है कि बंदा भले ही चिपकू था पर उनकी किसी भी हरकत से वो मुझे लंपट नही लगा। दीदी कहकर  ही उन्होने मुझे पकाया और एक बार भी बातों में भी मर्यादा की सीमा नही पार की। खैर पति को जल्दी ही मेरी बात पर यकीन करना पडा क्योकि 2 दिन बाद ही उनका फ़ोन आया, मुझे ना पाकर वे निराश अवश्य हुए पर पति से कहना नही भूले कि – आपकी पत्नी बहुत अच्छी और  मदद्गार महिला है, हम उनके आभारी है,, दीदी से बात जरुर करवाइएगा।
  वो दिन है और आज का दिन मैनें उनसे कभी बात नही की,,अलबत्ता महीने में 4-5 बार वो हमे याद कर ही लेते है। हर खास अवसर पर मैसेज,,अकसर ‘दीदी’ की पूछ और पतिदेव से लंबी चर्चा और फ़िर कॉल करने का वादा। अब पतिदेव को भी समझ आ गया है कि “फ़ेविकोल” किसे कहते है??? जो भी हो ये बहुत ही मज़ेदार किस्सा और हिस्सा है मेरी ज़िंदगी का…पतिदेव को प्राय: छेडते हुए पूछ लेती हूं कि – मेरे भाई का फ़ोन आया या नही? प्रभु को धन्यवाद देती हूं कि मैने अपना नं नही दिया मगर अगले ही पल ये ख्याल आता है कि,,क्या रिश्ता है मेरा उनसे जो आज भी उनको मुझसे जोडे हुए है?? मन के तार जाने कैसे मिल गये कि कोई अपरिचित सहयात्री अपना सा बन गया??
  सच कहूं तो वो अब मेरे अच्छे भईया है, जिनके लिये मेरे मन में कोई गुस्सा या खीझ नही। अचरज होता है कि दुनिया कैसे- कैसे लोगों से भरी पडी है… जहां अपने ही परायेपन का अहसास दिला देते है वहां किसी अजनबी का अपनापन बहुत ही सुखद अनुभव है।वो मेरे संघर्ष से आज भी दुखी है और मुझमें आज भी उनको झेलने का साहस नही,, बावजूद इसके हमारे बीच कुछ तो है जो भला सा है और मेरे पतिदेव कहते है कि – वक्त ही बताएगा कि मिश्रा जी का आगमन हमारे जीवन में क्यों हुआ है तब तक मज़े लो उनकी बातों के……ऊपरवाले ने कुछ तो सोचा ही होगा तभी ये डोर आज तक निभ रही है…देखते है क्या है आगे???

Wednesday 1 August, 2012

तुम्हारा ख़्याल..


शाम को जब बिखरी लटों
और साडी पे ढेर सारी सलवटों के साथ
दफ़्तर से घर लौटती हूं जब,
सच में बस दो ही चीज़ें बेतरह याद आतीं हैं…
एक तो मां के हाथों का बना खाना
और दूजा तुम्हारी बाहों में मेरा थक के समां जाना,,
पर सूने घर में सिर्फ़ सामान पडा है अहसास नही;
यही भूल जाती हूं…और
अकेली शामों ,रोती हुई रातों में
बस अपने तकिये को सबसे करीब पाती हूं…।
गुनगुनी सी गर्म यादों की सिंकाई,
 ठंडे अलसाये जिस्मों दिमाग़ को
 फ़िर ताज़ा कर देती है…
फ़िर रात को मेरी थकान और तुम्हारी यादों,
की जद्दोज़हद शुरु होती है।
पुरसुकून सोने को तेरी बांहों के सिरहाने,
बेसहारा मेरी गरदन, जाने कब;
आंखों के साथ मिलकर
अगली सुबह होने वाले दफ़्तर के नज़ारे
को देखने में लग जाती है…
इसी उधेडबुन में तेरी यादों से मेरी थकावट,
जंग जीत जाती है।
तुम तो आते नही, अलबत्ता
नींद ज़रुर आ जाती है॥
सुबह उठते ही फ़िर,
सबसे पहले तुम्हारा ख़्याल
रात भर देखे तुम्हारे सपनों को,
यूं ही बिस्तर पर अलसाई पडी,
रिवर्स-फॉरवर्ड करके देखती हूं फ़िर से…
ठीक इसी वक्त ,मुझे दिनभर के लिए फ़िर से
दुनिया,दस्तूर और दफ़्तर के हवाले  छोडकर,
तुम्हारी याद शाम का वादा देकर
पलट कर चली जाती है…।
दिनभर की ख़ाक छानकर
जैसे ही घर की चौखट पे आती हूं,
ताज्जुब नही होता है,,
जब उन यादों को खुद के इंतज़ार में पाती हूं…।

Sunday 29 July, 2012

सिर्फ़ “प्यार” के नाम,,,


शादी के बाद सबकुछ बदल जाता है…दिन से लेकर रात और दिल के हर जज़्बात तक सबकुछ । पुरुषों के बारे में तो ज्यादा नही पता मगर महिलाएं तो अपनी हर भावना को बयां कर ही देती हैं…और बात अगर रोमांस और प्यार की हो तो कंजूसी का सवाल ही नही उठता,अगर सही वक्त पे सही साथी मिल जाए तो अरमानों की उडान ऊंची हो जाती है…शादी के बाद ‘पहले सावन’ की अनुभूतियों में वर्तमान और अतीत के मनोभावों को उजागर करती ये पोस्ट सिर्फ़ “प्यार” के नाम,,,एक अल्हड लडकी की कहानी मेरी जुबानी…।
अबकी बार सावन ढेर सारे अहसास लेकर आया है,उम्र सोलह की नही होने पर भी ये अहसास गुदगुदाते है और मैं बार-बार सिहरन को महसूस करती हूं। चाल में अजीब सी शोख़ी आ गयी है,बातों में अदा और आंखें हरपल मुस्कुराती रहतीं हैं। जाने क्या हो गया है बावरे मन को?
  अपने वजूद में हरपल किसी को महसूस करना बहुत ही रुमानी होता है और इस बारे में कहने के लिए सचमुच मेरे पास लफ़्ज़ नही है। ये कोई नई बात नही जो मैं कह रही हूं मगर ख़ुद महसूस करने से इसकी सच्चाई पर यकीन ज़रुर हो गया है। प्यार; सच्चा प्यार नसीब वालों को मिलता है और जिसे बार-बार मिले वो तो नसीबों का बादशाह होगा।दिल ये मानने को ही तैयार नही है मेरा,, कि सबकुछ फ़िर से हो रहा है जो पीछे छूट गया था…मगर माशा अल्लाह सबकुछ बहुत हसेएन हो रहा है॥
   पहले लगता था कि ये सब कोरी बकवास है,,क्या चांद में किसी का चेहरा नज़र आ सकता है? क्या हवाएं भी बातें कर सकती है? क्या अकेलापन भी कभी अच्छा लग सकता है? क्या बारिश की हर बूंद किसी के गीले बालों की याद दिला सकती हैं?? सब फ़िल्मी बातें हैं ;; कविताओं और कहानियों की निरी गप्प…… लेकिन नही, मैं ये सारे अहसास ख़ुद जी रही हूं । एक छोटी सी चीज़ में भी अपनापन ढूंढ लेती हूं आजकल । टीवी का कोई रोमांटिक सीन हो,,कोई प्यारा सा गाना हो,, मोबाईल का कोई टेक्स्ट मैसेज  हो,,कोई खास रंग हो,,कोई ख़ास वाकया हो;;;यहां तक कि बरबट्टी की सब्जी में भी किसी के होने का अहसास घुला मिला रहता है।
       कोई चीज़ खराब लगती ही नही;; हर कोई,हर बात, हर वक्त हसीन है। जागो तो किसी का ख़्याल और सो जाओ तो उसके सपने॥ और अब तो प्रेम का वह शिखर छूने का प्रयास है ,जहां बातों,मुलाकातों और रिश्तों की दरकार भी खत्म हो जाएगी। व्यस्तताओं के बीच बात ना होने पर भी स्वयं को ढांढस बंधा कर खुश रहने की कवायद, और दिल को एक मीठी सी तसल्ली कि…”उदास मत हो मेरी जान,वो तुझे याद कर रहा होगा”…जीवन में उजास भर रही है।
      मुझे लगता ही नही कि ये मैं हूं ॥ दुख, निराशा, अकेलापन इन सबसे उसने मुझे उबार लिया है। उसके जीवन भर में होने के अहसास से बाजुओं में ताकत महसूस होती है। वो मेरा आज है और आने वाला कल भी उसी से गुलज़ार है मैं जानती हूं।और प्यार की इतनी सारी स्मृतियां है अब तो मेरे पास, कि ज़िंदगी आराम से तो नही पर मगर आहें भर-भर के कट ही जाएगी॥
      जीवन में इससे अच्छा सावन मैनें नही देखा क्लास 8 के बाद से॥ नदी पर से गुजरती हूं तो तो छतरी लेकर तेज बारिश में पुल पर यूं ही घूमना याद आ जाता है। कोई खुद भीग कर अपनी छतरी दे दे,,इसे भी लोग फ़िल्मी कहेंगे; मगर मेरा तो यथार्थ है ये।  भीगे सर, तरबतर यूं ही बैठे रहना, गीली आंखों से छुप छुपकर एक-दूसरे का दीदार कि तीसरे को पता ना चले और वो गर्मागरम समोसा जो जवानी की  दहलीज़ पर पहले प्यार का पहला तोहफ़ा था!! और सबसे मज़ेदार होता था; सबकुछ जानकर भी अनजान बने रहना। ख़ैर इस सावन ने वो सारे भीगे,नर्म, हरे भरे अहसास फ़िर लौटा दिए।
      ये बीता हुआ हसीन कल और आज के खूबसूरत पल मुझसे कोई नही ले सकता,,आज दोनो ही मेरे पास है॥ 2 महीनों  में बरसात चली जाएगी पर नया मौसम नये अरमान, नई आस जगाएगा। अगले सावन जाने मैं कहां रहूंगी, सावन में भिगोने वाला कैसा रहेगा…मेरे पास रहेगा  या नही??? ये सब सोचने का वक्त नही मेरे पास क्योकि आज जो है उसी को समेटने की पुरजोर कोशिश में लगी हू ताकि अगले कई सावन इस सावन की याद में बीत जाए…


प्यार की रिमझिम से भीगे इस पोस्ट के साथ आपको सावन की हरियाली मुबारक!!!!!  

Friday 30 March, 2012

April Fool


आज  “फ़ूल डेहै। पहले ये दिन बहुत खास हुआ करता था। मैं नए-नए तरीकों से अपने परिचितों कोफ़ूलबनाया करती थी,, पिछले ही साल अपने एक मित्र को ऐसाबनायाथा मैने कि उसकी जान पे बन आई थी और हमारी दोस्ती टूटने  की नौबत थी॥ उम्र बढ्ने के साथ- साथ ऐसी हरकतें बचपना कहलाती हैं ,और हम गंभीरता  का कृत्रिम आवरण ओढ लेते है। और आज इस दिवस का महत्व इसलिए भी कम हो गया है क्योंकि रोज ही लोग एक-दूसरे कोटोपीपहना रहे है,दग़ा दे रहे हैं और मोबाईल ने तो लोगों के जीवन का आनंद ही छीन लिया है।बडे तो बडे है; मगर बच्चे भी टीवी, ट्यूशन और एक्सट्रा क्लास में व्यस्त है अतः ऐसे हास्य बोध के लिए किसी के पास समय नही है। इसका स्थान धड़ल्ले  से सुनाये और पढे जाने वाले द्विअर्थीय संवादों और चुटकियों ने ले लिया है।
      आधुनिक ओछी मानसिकता की पराकाष्ठा  ये है कि; लोग सच बोलने वाले कोहरिश्चंद्रऔर सज्जन कोगांधीकहते हैं,,गोया कि गाँधी और हरिश्चंद्र कोई गाली हो। अपने आस-पास के उन बुजुर्गों से पूछिए जो देश की स्वतंत्रता  के साक्षी है; कि गाँधी होने के क्या मायने हैइसलिए जान लेना चाहिए कि महात्मा गांधीमजबूरी का नामनहीख़ैर आज से कॉन्वेंट स्कूलों के दरवाज़े पुन: खुल गये(बहुतों के 15 दिन पहले ही खुल गये होंगे) और ऐसा लगता है किगरमी की छुट्टियाँकुछ सालों पश्चात केवल अतीत की बातें बनकर रह जाएंगी। पिज़्ज़ा कल्चर और कॉन्कॉर्ड की गति से भागती दुनिया ने बच्चों से बचपन  छीन लिया है। मैं और मेरे हम उम्र बहुत भाग्यशाली है कि हमें हमारा बचपन; मासूम बचपन नसीब हुआ।
                 15 अप्रैल तक हमारी छुट्टीयां शुरु हो जाती थी,जो लगभग 15 जुलाई तक; यानि कि पूरे 3 महीने चलती थीं अर्थात उस समय पढाई और स्कूल की कोई भागमभाग नही थी, फ़िर भी सब कुछ भला सा था।छुट्टीयों में नानी के घर जाना और निश्चिंत होकर खेलना,,यही हमारा प्रिय शगल हुआ करता था दोपहर भर लूडो, ताश, कैरम, पचीसा, कॉमिक बुक्स और शाम को लंगडी,पिट्टूल, परी-पत्थर और रात को छुपा-छुपाई ;;यही थी मेरी दिनचर्या कितनी ऊर्जा होती थी उस समय हमारे पास और कितना वक्त भी !!आज के बच्चों के पास ये दोनो ही नही है। और इन सबसे भी यदि मुझे फ़ुरसत मिल जाती थी तो आम चुराना,,जेठ की भरी दोपहरी में साइकिल में फ़ॉर्म जाना,तितली पकडना; ये सब मेरे प्रिय काम हुआ करते थे
         हमारे माता-पिता भी आजकल केकेयरिंगअभिभावकों की तरह नही होते थे॥ बच्चों को उनकी दुनियां में छोडकर माएं सुकून की सांस लिया करती थी और पिता हमारी गतिविधियों दृष्टि अवश्य रखते थे,,दख़ल नही ।इसका कतई ये अर्थ नही कि उनको हमसे प्यार नही था,, बस वो जीवन ही ऐसा सरल था कि बेवजह टोका-टाकी की ज़रुरत नही रहती थी अब वो दिन बुलाने पर भी वापस  नही आएंगे, बस उनकी मीठी यादें हैं मेरे पास परिपक्वता हमारा बहुत कुछ छीन लेती है, फ़िर भी हम जल्दी-जल्दी बडे होना चाहते है॥ बचपन में जो तितलियों के झुंड, फूलों की खुश्बू रोमांच देती थी; अब उनके सामने से गुज़र जाने पर भी मन में कोई भाव उत्पन्न नही होते इतनी संवेदन हीनता इस परिपक्वता की ही देन है।
     हर व्यक्ति के अंतस में उसका बचपन छिपा होता है, जो कभी स्वयं के बच्चों या नाती-पोतों के सामने उजागर होता है और इसे जीवित रहना भई चाहिए, क्योकि इसकी मौन उपस्थिति से भी मनुष्य का चित्त प्रसन्न रहता है। और एक बार यदि मनुष्य बचपन को खो दे तो वह बचपना करने लगता है।बचपनऔरबचपनेमें बहुत अंतर होता है और यही अंतर व्यक्ति को ले डूबता है। मुझे दुख है इस पीढी और आनेवाली पीढी के लिये,, जो नही जानते कि उनके पास क्या नही है???